Sunday 23 August 2015

Sanjivani has asked
BS
I was jobless for last few years. I have got clerical job since 2 months.
My job work is data enteries in computer .
BUT
I become confused and feel headache as soon as i start assorting messed documents.
I fear, I would have to leave job if this state of confusion persist.
Can you please suggest anything?
Suggestion
Sanjeevani,
Life becomes hell when it is postponed for a moment. Postponement creates dead and debris.
That creates problem.
As your job is data enteries of old messed documents,you must be encountering similar state of handling all old,new and dead documents.
My suggestion
As soon as you receive file work ,find, decide and eliminate dead and unwanted documents before initiating further activity of assortment etc.
FOLLOW NATURE
&
NATURE WOULD FLOW THROUGH YOU.

इंद्र ने पूछा है
कि
क्या गुरू को भी, अपने ,शिष्यों की आवश्यकता होती है?
और

यदि हां, तो दोनों की आवश्यकता में क्या अंतर हुआ?
उत्तर:
इंद्र
जब तकइस संसार मेंहमें देह प्राप्त हैतब तक
सबको ,एक दूसरे की आवश्यकता होती है।
देह को,सदा,एक दूसरे की आवश्यकता होती है।
जीवनभीतर और बाहरकासंतुलन है।
शिष्य का संतुलन इस लिए टूटा हुआ है कि उसे भीतर का ज्ञान नहीं है।
और
गुरू ने अपना संतुलन स्वयं खो दिया है क्योंकि वह अपने अंतरतम में विराजमान हो गया है।
इस संतुलन को पुनः स्थापित करने के लिए गुरू
अपने,बाहरी जीवन के लिए ,अपने शिष्यों पर निर्भर होता है।
वह
अपने,शिष्यों के माध्यम से संसार में
अपने को "अभिव्यक्त" कर सकता है।
इसके विपरीत शिष्य को अपनी  "भीतर की यात्रा "
के लिए  अपने  गुरू की आवश्यकता पड़ती है।दोनो की आवश्यकताओं में भेद:
गुरू संसार में केवल अभिव्यक्ति के लिए ,अपने शिष्य पर निर्भर होता है पर "आश्रित" नहीं।
परतुं
शिष्य,गुरू पर "आश्रित" होता है,  निर्भर ,मात्र नही।
उदाहरण
कृष्ण को धर्म युद्ध के लिए  अर्जुन की आवश्यकता पड़ी। वे, स्वयं ,सभी कलाओं में निपुण होने के पश्चात भी, अर्जुन के माध्यम से, युद्ध करने के लिए बाध्य थे।
परतुं
अर्जुन को उसी युद्ध में ,विजयी होने के लिए, कृष्ण पर  अध्यात्मिक ज्ञान के लिए , उनका, शिष्य होना पड़ा था। अर्जुन ,कृष्ण पर "आश्रित" था  और  कृष्ण, "अर्जुन" पर निर्भर। सदैव याद रखें बडे़,छोटो पर "निर्भर" होते हैं और छोटे,बडे़ पर "आश्रित"।
नीरजा ने पूछा है
BS
मैं एक आत्मनिर्भर महिला हूँ।
मैं,विश्वविधालय मे,
उच्च स्तरीय पद पर कार्यरत हूँ
पर
फिर भी
मैं
मुक्तता को अनुभव नही करती।
मैं,आत्मनिर्भर होने के बाद भी,
सामाजिक और भावनात्मक तल पर
अपने को बंधा हुआ
अनुभव करती हूँ।
क्या ,मेरे लिए
आपके पास
कोई
संदेश है?
उत्तर
नीरजा
जीवन दूसरे पर "आश्रित" न हो जाए,
इसका तो उपाय किया जा सकता है
और
जीवन ,"आत्मनिर्भर" हो, इसका भी आयोजन किया जा सकता है
परतुं
जब तक आत्मा,देह में निवास करती है तब तक देह,
दूसरे से मुक्त हो जाए और आश्रित न हो
यह
अंहकार का असंभव
प्रयास है।
नीरजा
हम
स्वावलंबी और आत्मनिर्भर
होते
ही
यह,भुला देते हैं
कि हम
अभी भी
भावनात्मक रूप से
दूसरे
पर निर्भर है।
अहंकार की यह सोच
कि
आर्थिक और सामाजिक
स्वतंत्रता मिलने के बाद
चेतना
पूर्णता "मुक्त" अनुभव करेगी
अहंकार की
मूर्खता है।
अंहकार की यह मूर्खता ही बंधन का भाव ला रही है ।
अपने
स्वावलंबी और किसी पर भी "आश्रित " नहीं होने के अहंकार के प्रति सजगता लाओ।
तभी
तुम
मुक्त
अनुभव करोगी।
Shalu has asked
BS
Why do you emphasis on living a luxurious life and simultaneously crticise comfortable life?
What's difference between these two states?

Answer
Addiction of comfortable life is 
Life of Indulgence.
Non addiction of comfortable life is 
Life of Luxury.
I emphasize on luxurious life because one has to become and remain intelligent to live "Luxurious life".
Luxury means a state of abundance.
Abundance of health,wealth,prosperity etc.
Comfortable life means a secured life which requires no intelligence but a greediness to accumulate material so that comforts and convenience can be purchased.
Unaware comfortable life can create a life of Indulgence.
Indulgence brings spiritual sleepiness.
Luxurious life keeps awaken a person
Hence
I insist on luxury and condemn comforts or indulgence.

"अभिलाषा" ने पूछा है
BS
कृष्ण की गीता मुझे कंठस्थ हैं
परतुं
कृष्ण की गीता को ,जीवन में, प्रति पल कैसे जीए?
उत्तर :
अभिलाषा
मेरी दृष्टि में
"गीता" का एक ही "उपदेश" है
वह यह है
कि
"अपने" काम से भागो "नही"
"उसके" काम में आओ "नही"।
जीवन को "खेल" की भांति जीना ,हमारा काम है और
जीवन मरण का खेल बनाना ,उसका काम है।
मनुष्य का चित
इसके
विपरीत चलता है।
यही
उस की "समस्या" का कारण है।
तो
"अपने" काम से "भागो" नही
और
"उसके "काम में भाभागीदार मत बनो।

मानसी
ने पूछा है
BS
1
जीवन की प्रति पल होती घटनाओं में,कौन सा काम प्रभू ने मुझे करने को दिया है और कौन सा स्वयं के लिए रखा है, इसका बोध कैसे होता है।
2
यह भी बताए
कि
कौन सी आवाज भीतर , आत्मा की है
और
कौन सी,अंहकार की?
यह अनुमान किस आधार पर किया जा सकता है
?
उत्तर:
जिजिन कार्यो को
"पूरा प्रयास" करने के पश्चात ""भी""
नहीं
किया जा सके
वह
काम करना,
"हमारा काम" नहीं है
उसे
प्रभू पर ही
छोड़ देना चाहिए।
2
विषम परिस्थितियों में ,जिस आवाज़ का अनुसरण कर , आप अपने उस संकट से बाहर निकल आए
वह स्वर आपकी "आत्मा "का होता है
और
सुखी समय में
जिस आवाज का अनुगमन कर,
आप ,अपने दुख के समय को निमंत्रण दे देते हैं, वह आप के "अहंकार" की आवाज है।
Rahul Khanna has asked following question
BS
Namastay!
When enlightened beings can see future then why do they not practice "Astrology ?

Answer
Astrology has lost its significant and valuable dimensions in present Era.
Astrolgers and their followers are excited to know and discuss about sensational negative aspect of life. They need false and pseudo mental reliefs in form of sympathy.
जाग्रत व्यक्ति सत्य दे सकता है, सांत्वना नही!
Enlightened person knows the TRUTH .
He can see both, positive and negative aspects of a situation simultaneously. He can't create a false sensational image in anyone's mind.
That's why, Enlightened person never markets astrology like a typical astrolger.
Moreover
Astrolger is concerned about "Future". Future is base of market astrology.
Enlightened people lives in present and is concerned about present.
Hence, no enlightened being is able to practice typical orthodox astrology.
निरंजन ने प्रशन पूछा है
BS
स्वतंत्रता और स्वछंदता में क्या भेद है?
और
इसे,कैसे प्राप्त किया जा सकता है ?
उत्तर :
बाहरी स्वछंदता को " स्वतंत्रता" कहते हैं।
और
भीतरी स्वतंत्रता को "स्वछंदता" कहते हैं।
स्वतंत्र(Freedom)
हर मानव ,ईशवर द्वारा ,मुक्त बनाया गया है।
"यही,उसकी अंतरतम की प्यास है" ।
हर व्यक्ति,बाहरी जीवन,अपनी शैली से जीना चाहता है
पर
सामाजिक और आर्थिक बंधनों के कारण ,वह दूसरों के,तंत्र से चलने पर ,बाध्य होता है।
इसे ,परतंत्रता कहते हैं।
परतंत्रता के विपरीत पायी गयी परिस्थिति को,स्वाधीनता या स्वतंत्रता कहते हैं।
मूलतः
स्वतंत्रता,शारीरिक तल पर पायी गयी एक परिस्थिति है ।
स्वछंदता(Liberation)
अपने भीतर खोजी गई, अपनी प्राकृतिक शैली से जीने की अवस्था को स्वछंदता कहते हैं।
अपनी मुक्त अवस्था में जीना ही,"स्वछंदता" है।
"स्वतंत्र" जीने के लिए बाहरी क्रांति चाहिए
और
"स्वछंद" जीने के लिए भीतरी ध्यान और जागरण चाहिए।
"स्वतंत्र" होने के लिए, Leader चाहिए
और
"स्वछंद" होने के लिए, spiritual master चाहिए।
Leader, जंजीरों से, आजादी लेना सिखाता है
और
गुरू,भीतर के,मुक्त आकाश में "उड़ना"।
Deepak has asked
BS!
I have been सेवक to my parents but they didn't appreciate my services .They even distributed our ancestors property to my younger brothers and sisters who never came to help them in their life time.
I'm very disappointed. 
क्या सेवा का कोई फल नही मिलता?
Answer
Deepak, you must understand the following words
1.असहयोगी
2.सहयोगी
और
3.सेवक
तुम,अपने भाई बहनों की तुलना में,
अपने माता पिता के सुख दुख में अधिक सहयोगी रहे होगे,
परतुं
"सेवक नहीं"।
अपने माता पिता के साथ रहने के कारण, तुम,अपने भाई बहनों की अपेक्षा, माता पिता के सुखों के भी अधिक भागीदार रहे हो।
इसलिए
यह कहना कि
तुम उनके सेवक रहे हो,
ऐसा उचित नहीं है।
**
"सेवा का सुख मिलता है"
और
"सहयोग का पारितोषिक या लाभ मिलता है"
**
स्मरणीय रखने वाली बात है
"सुख और लाभ"
दोनों,साथ साथ नही मिलते"
दीपक
तुम,दोनों हाथ ,लडू चाहते हो।
यह चाहत छोड़ दो।
सेवक का उदाहरण,हनुमान हैं।
सहयोगी का उदाहरण,समाज सेवक हैं।
श्याम जी ने पूछा है
BS
मैने जीवन में कडी मेहनत की है परतुं मैं अपने उन मित्रों को अधिक सफल पाता हूँ जिन्होंने अधिक आराम किया है।
क्या मेरा यह अनुभव ठीक है या मेरे देखने में कोई त्रुटि है?
श्याम जी,
जीवन में धन तो ,कडी मेहनत से ही अर्जित किया जाता है
परंतु धन का,
जीवन के विकास में योगदान, जीवन के "संतुलन" को संभालने से होता है,
"मात्र कडे श्रम से नहीं"।
निसंदेह,आप ने जीवन में कडी मेहनत की है परतुं जीवन को संभालने की, कोई कला आपने नही सीखीं।
जिन मित्रों को आप सफल पाते हैं उन्होंने ,
कही जाने या अनजाने ,
जीवन के संतुलन को संभालने का प्रयोग किया है।
"स्मरण रखने योग्य तथ्य"
"जीवन के संतुलन को संभालने से बड़ा कोई श्रम नहीं है"
विभोर ने पूछा है
BS
क्या निरोगी और स्वास्थ्य पर्यायवाची शब्द है?

उत्तर
शब्दकोश में ये दो शब्द, पर्यायवाची है
परतुं
जीवंत अनुभव में नही।
शरीर की दो अवस्थाएं है
रोगी और निरोगी
जो शरीर अधिकांश रूप से बीमार ही रहते हैं, वे रोगी होते हैं।
जो शरीर अधिकांश रूप में रोग से ग्रस्त नहीं होते, वे निरोगी होते हैं
परतुं
निरोगी व्यक्ति ,केवल रोगी ""ही"" नहीं होता।
इसका अर्थ यह नहीं है कि निरोगी व्यक्ति स्वस्थ हो गया।
"स्व में स्थित ही "स्वस्थ" होता है"।
काया का नियम "रोग और निरोग" है।
ऐसा कोई निरोगी नहीं, जिसके रोगी होने की आशंका न हो
और
कोई ऐसा रोगी नही जिसके पीड़ा के उपचार की संभावना नहीं हो।
केवल
जीवन का शाश्वत नियम ही, स्वास्थय है।
बिना आत्म अनुभव के ,स्वास्थय को अनुभव करना ,असंभव है।
स्वस्थ व्यक्ति
न रोगी होता है और न ही निरोगी।
उसकी देह दोनों परिस्थितियों में होती है परतुं वह दोनों के पार होता है।
बुद्ध,महावीर, ओशो,रामकृष्ण जैसे अन्य प्रबुद्ध व्यक्ति ही स्वस्थ होते हैं।
सामान्य जन तो ,रोग और निरोग के बीच में अस्थिर रहता है।
शांत और आनंदित
1
जीवन की दो विपरीत परिस्थितियों का संतुलन बिगड़ जाने से,अशांति का जन्म होता है।
2
जीवन के दो विपरीत परिस्थितियों के संतुलन घटित रहने तक ,जीवन शांत रहता है।
3
शांत होकर,शांत रहने की आकांक्षा को भी त्याग देने से,आनंद का विस्फोट होता है।
BS
You said god will only come when you have lived your life fully. But my life is filled with lots of broken circles so he will not let me merge in him? I have realised one thing, only his love is truth. Rest all is false. Very shallow.
"Niki

Answer
God never comes never goes
anywhere.
Life breaks only at periphery never at center
Our broken life is not able to realise that we are complete from the day one.
Once broken circle is repaired, we come to realise
that
जिसको हम बचाना चाहते हैं वो मरन धर्मा हैं
और
जो सदा से complete है उसके प्रति हम सदा मरे मरे ही जीते हैं।
Repair of broken circle would ignite a light which would help to see"
the element" within which is always complete & never broken .
सारिका ने पूछा है
कि
गुरू
अपने शिष्यों से धन क्यो लेते हैं?
उत्तर
जो गुरू
अपने शिष्यों से, धन लेने की आकांक्षा रखता है वह दुकानदार है , गुरू नहीं
और
जो शिष्य,गुरू को
बिना गुरू दक्षिणा चुकाये
ज्ञान लेने का प्रयास करें
वह
कपटी व्यक्ति हैं, शिष्य नहीं।
गुरू से ऊर्जा ली जाती है
और
पदार्थ ,
दक्षिणा रूप में दिया जाता है।
यह
शिष्य की विवशता है
कि वह अपने गुरू को धन के अतिरिक्त कुछ और नहीं भेंट कर सकता परतुं गुरू को यदि शिष्य से धन की आशा है तो वह शिक्षक होगा, गुरू नही।
उदाहरण
जब आप बिजली घर से बिजली लेते हो तो उसका भुगतान,बिजली से नहीं बल्कि बिजली के उपयोग से कमाई हुई धन राशि से कर सकते हो।
इसी तरह
गुरू की ऊर्जा का भुगतान, केवल पदार्थ से किया जा सकता है।
मेरा अनुभव
जो व्यक्ति तुमसे
धन मागें
उसे गुरू मत मानो
और
जिससे तुम कुछ मांगों
उसे
धन मन और तन दे दो।

Saturday 15 August 2015

The fashion psychology

Manisha has asked
BS
Kindly tell about psychology of fashion.
I am obsessed with idea of purchasing new fashionable clothes.

It becomes a cause of fight between me and my husband .

Answer. 

Life is a constant change.
Changes happen every moment.
But
Mind fears every change.
Mind is comfortable with old and known things and simultaneously feels boredom with old and known.
So
When we can't flow with changes of life, we change clothes
(as substitute)
Constant change is only possible through fashion.
Manisha
If you are obsessed with idea of fashion that means you want changes in life which you are not able to do.
We are so bound with every thing that our life is stuck
Same house
Same car
Same routines
Same husband and his ma
Same wife
etc. .....
Finding no other way
Our mind find substitutes.
FEEL
CHANGES IN LIFE THROUGH ..FASHION.
Either flow with life or let your hard money flow in buying new fashionable clothes.
वासन ने पूछा है
कि
"ग्रंथ" किस व्यक्ति से जन्म लेता है
और
"उपन्यास और कविताएँ" किस व्यक्ति से?
उत्तर:
जो व्यक्ति मन की चंचलता और कल्पनाओं में अर्थात्(भविष्य)में जीते हैं,
वे कविताओं और उपन्यास को जन्म दे पाते हैं।
और
जो व्यक्ति सारा जीवन ऐसे जीते हैं कि अभी इसी क्षण मर जाना है अर्थात्(वर्तमान के क्षण) में)
परतुं
अपना काम ऐसी लग्न और त्वरा से करते हैं
कि जैसे कभी मरना ही न हो,
उनसे ग्रंथ जन्म लेते हैं।
Mr. Datt has asked
BS
My kids don't respect me. My elder son tried to slap me on some family issue.
I want to commit suicide due to shame.
Where have I gone wrong?


Answer

जो बोया है, वह काटना पड़ता है।
यह
जीवन का नियम है।
इसमें,कोई अपवाद नहीं है।
और
परेशानी यह है कि हमें काटते हुए पता चलता है कि हमने क्या बोया था।
उदाहरण के लिए
यदि मैं, आप को नीम और करेले के बीज दूं तो क्या आप इतने दक्ष हैं कि उनमें भेद कर पाओगे।
नहीं कर पाओगे....!
परतुं ,यही यदि फल के रूप में दूं तो तुरंत नीम और करेले का भेद हो पाएगा।
ऐसा ही,हमारा कार्मिक बीज होता है।।बोते हुए हमे पता ही नहीं चलता कि क्या बोया जा रहा है।
नीम ,बो कर हम आम की फसल काटने की इच्छा रखते हैं।
ध्यान का महत्व ही यही है कि हम बोने से पहले अपने कार्मिक बीजों को पहचानने लगे।
माँ बाप की समस्याओं के बीज ,तभी पड़ने लग जाते हैं जब वे अपने अहंकार में बच्चों के साथ "नासमझी" में दुर्व्यवहार करते हैं।
माँ बाप चाहते हैं कि उनका बच्चा उनकी मान्यताओं से जीवन जीये।
और
हर,चेतना स्वछंद जीना चाहती हैं।
इसलिये

पहले माँ बाप बच्चों को दंड देने है और बाद में बच्चे,यह कर्ज सूद के साथ मां बाप को लोटा देते हैं।

शारदा जी ने पूछा है
कि मेरा, घर में बैठे रहने से मन घबराता है ।
मेरे पति को, मेरी घर से बाहर जाने की प्रवृत्ति से आपत्ति होती है।
मैं,अपने दैनिक कामों को करने के बाद, घर में नही बैठ पाती।
मैं किस तरह ,अपने को बदलू?
उत्तर
शारदा जी
हम तीन अवस्थाओं में घर से बाहर निकलते हैं।
1 जब,अकेलापन काटता है या डराता है।
2 जब जीवनयापन के लिए नौकरी या व्यवसाय के लिए हमें संसार में जाना पड़ता है।
3 जब जीवन में बहुत खुशी हो ,तो उसे बाँटने के लिए, लोगों तक पहुंचाना होता है।
आप(1)अवस्था की शिकार है।इस मनःस्थिति का तो उपचार होना चाहिए।
जो व्यक्ति अकेलेपन से बचने के लिए संसार में जाता है, वह ओर ज्यादा अकेला अनुभव करता है।
जो व्यक्ति अपने साथ रहने की कला को जानता है वह अपने घर में भी आनंदित रहता है और घर के बाहर भी।
अपने साथ रहना,"अकेलेपन "का उपचार हैं।
Pragyaa has asked
BS
Can you please make me understand why did God create woman out of man's rib as mentioned in Bible?
Why not ,vice versa. ..?
Answer
God has created a mutual dependency of every particle of matter.
It's not only that God created woman out of man's rib. Man is dependent on woman's womb to take birth.
If woman is created from man's rib then man is also getting birth from woman's body.
In fact
Man & woman are two opposite physical entities of same force.
They are one!
Pragyaa has asked
1
Why did God ask Adam and Eve not to eat apple from tree of knowledge?

2
Why did he punish them for eating apples from tree of knowledge?

3
Is knowledge bad thing?
Answer

Knowledge binds us to ego. 
Knowing liberates
There is difference between knowledge and knowing.
God wants us to" know " ourselves. Knowledge gives nutrition to ego. Ego is a cause of suffering .
That's why
God advised not to eat apples from knowledge tree
and
punishment signifies that after eating apples of knowledge ,Adam and eve have become part of ego and suffering till date.
Knowledge is neither Good nor bad but till "knowing" is illuminated ,the utility of knowledge is always bad.
All these spiritual messages are indicator for us to liberate from knowledge and ego.


Thursday 13 August 2015

Hey Guys !
Thanks for your love and support .

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Thursday 19 March 2015

DIFFICULTIES DO NOT MAKE LIFE DIFFICULT


Life is not difficult.








Difficulties do not make it difficult.
 Ambitions and desire to live a lethargic and a life of comforts make it difficult.











Restlessness of in completion of a task sometimes is felt as difficulty. 

Be aware of this
Restlessness.


This restlessness wants to find a way of completion. 
If this restlessness is not understood well in time, the valuable asset is thrown.


Restlessness is a valuable asset. 
Restlessness can be fullness of rest some day if meditated and understood properly.

"असंभव में उत्सुकता

जो मिल जाता है
उसका
कोई "मूल्य" नहीं रह जाता।

जिसमें
मूल्य
नही रह जाता
उसमें कोई उत्सुकता नहीं होती।

उत्सुकता के बिना "मन" नहीं रह सकता

मन को जिंदा रखने के लिए कोई असाध्य लक्ष्य चाहिए।



असाध्य लक्ष्य,असंभव होता है ।

असंभव मिल नहीं पाता इसलिए उसका मूल्य हमेशा रहता है ।

और जिसका मूल्य रह जाता है उसमें मन लगा रहता है।

अर्थात
मन
"असंभव" में लगा रहता है।
जैसे
"देहांत" के साथ
"देह" के सभी
रोग
"समाप्त" हो जाते हैं
उसी
प्रकार
ध्यान "उपलब्ध" होने पर
मन के सभी रोग समाप्त
हो जाते हैं।
"मनांत"(मन का अंत)
हो जाता है
और
पुनः देह में
जीने की
आवश्यकता नहीं होती।
"मनांत" ही ठीक "देहांत" है

मन का अंत ही "मोक्ष" है ।
 हमारे पास सबकुछ है
परंतु
"ईश्वर" के बिना
हमारा
सब कुछ
एक क्षण में ही
व्यर्थ हो जाएगा। 

इसका अर्थ यह हुआ 
हमें 
उसके "साथ" की आवश्यकता है।

"पति और पत्नी"

सामान्य रूप से पुरूष को स्त्री के 
                    "तन"
से प्रेम होता है । और स्त्री को पुरुष के 
                 "मन" से।

इसलिये पुरूष,"पति" बनने के बाद ,अपनी पत्नी के शरीर से बंधा रहता है। इसके दुष्परिणाम होते हैं।

1. यदि "पत्नी" किसी कारणवश दांपत्य जीवन में पति को सहयोग न        कर पाए तो पति "रूष्ट "रहेगा।
2. यदि पत्नी पति के परिवार मे अपना "तन और मन" का योगदान न
दे पाए
                 

पति अपनी पत्नी से 
तोरूष्ट ही रहेगा ।


अर्थात

"पत्नी" यदि "पति "के हर तरह के शारीरिक सुखों का ध्यान रखने में "असक्षम" रहती है तो पति और पत्नी का संबध "औपचारिक" ही रहेगा।

और

यदि 

"पत्नी" यह करने में "सक्षम" होती है तो यह संबध "झूठा" रहेगा 
क्योंकि ""आधार" तो "शारीरिक सुख " का आदान प्रदान है। 
इस 

"आधार"
के समाप्त होते ही "संबंध" भी समाप्त हो जाएगे।

इसी प्रकार" पति "यदि अपना मन पत्नी को समर्पित नहीं करे तो 
पत्नी रूष्ट रहेगी।

तबतो यह हुआ कि पति पत्नी से शारीरिक सुखों की मांग के कारण जुडा है
और
पत्नी पति से ,मन की मांग के कारण।

"दो मागने"
वाले एक -दूसरे को 
क्या देगे ?

"पति और पत्नी"
कभी भी
"पति पत्नी"
नही हो पाते
यही 
दांम्पत्य जीवन का दुख है ।

पति और पत्नी के बीच का यह "और" कभी मिट नहीं पाता!
तनिक विचारो भाई?

"विचार का महत्व"

"विचार का महत्व" 

"विचार" ही करते रहे तो निर्णय नहीं होता।

उदाहरण:


सेना में 
DO or DIE की देशना होती है

क्यो?


क्योंकि विचार करते रहने से सैनिक शत्रु की हत्या नहीं कर सकता।

निसप्ति:(conclusion)

निरंतर विचार करते रहने से निर्णय नहीं होता।
          और

यदि बिना विचार के जीवन जीया जाए  तो गलत निर्णय होते हैं।

उदाहरण :

यदि हिरोशिमा पर बम गिराने से पहले सैनिक ने विचार किया होता तो नरसंहार बच जाता।
 
बिना विचार किये चलने से दुर्घटना ही होती है।

तो

विचार निर्णय को रोक कर असहयोगी भी हो सकता है
और सुविचार सहयोगी भी हो सकता है । अब यह कैसे किया जाए
कि सम्यक विचार की दक्षता उपलब्ध हो?

तनिक विचारो भाई?
जो

अपने प्राणों की परवाह नहीं करते:  वीर/सहासी/शहीद

जो


अपने प्राणों की परवाह करते हुए,प्राणों को जोखिम में डालते हैं: 


समाजिक "प्रतिष्ठित" व्यक्ति

जो


अपने प्राणों की चिंता में ,कोई जोखिम "नहीं" उठाते:साधारण व्यक्ति

जो


अपने प्राणों को जानते हैं, "असाधारण" व्यक्ति सामाजिक प्रतिष्ठित 


व्यक्ति ,वीर साहसी और शहीदों के गुणगान करते 

हैं

और


आसाधारण व्यक्तियों को उनके जीवन काल में दंड और उनके मरने के 


बाद श्राधंजली देते हैं



साधारण व्यक्तियों को मूर्ख बना कर जीवन भर 
राजनीति करते हैं।

How does mind feel attached ?

 प्रशन:
मन मोह कैसे करता है?



उत्तर 
मन, जब काम करने में संघर्षरत होता है 
तब
अहंकार निर्मित होता है ।
अहंकार मोह उत्पन्न करता है ।
समझे :
आदमी किसी गहरे दुख में आत्महत्या का विचार क्यो कर पाता है ।
उदाहरण
यदि किसी की भरसक प्रयत्न करके कमाई गई संपत्ति का नुकसान हो जाए तो वह शरीर त्यागने को तैयार हो जाता है ।
क्योकि
संपति को अर्जित और इकठ्ठा करने में संघर्ष करना पड़ता है
और
संघर्ष से जो भी मिलता है उससे मोह हो जाता है।
इसके विपरीत
शरीर पाने में हमें कुछ संघर्ष नही करना पड़ा
वह
ईश्वर ने प्रसाद रूप में दिया है तो
उसके साथ मोह उत्पन्न नही होता और आत्महत्या का विचार आ जाता है।
तो सूत्र यह हुआ
मन=संघर्ष=मोह=मेरा=बंधन
मन=सहज=प्रसाद रूप=मुक्तिबोध



: जीवन में "श्रम" तो हो 

पर 
"संघर्ष " रति मात्र नही। 
तब
जो भी उपलब्धि होगी
उसमें
मोह नहीं होगा।
और
जब
मोह नहीं है
तो
आनंद ही आनंद।


English version of above

Question:

How does mind feel attached ?


 Ans
An Act of "Effort" creates an attachment. 
If efforts are not done,mind feels impotent to feel attached. 

Let's understand in this way
Everyone gets an idea of suicide in his lifetime due to one or other reason
Eg
If someone looses his hard earned money he thinks of committing suicide?
Why?
Because money is earned and gathered with much effort where as body is gift of God available to us without any effort or our investment so we can think of committing suicide. 
Hence
Effort brings attachment
If we don't put effort,we don't feel attachment.
 Continue to do work
But
Don't put effort
Do
"Effortless effort"

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